अंग्रेज हुकूमत से आज़ादी पाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और क्रांतिकारियों ने प्राणों की बाजी लगाकर, जेलों में अमानवीय व्यवहार और अंग्रेजों के अत्याचारों को सहते हुए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया ।
लाला लाजपत राय, यतीन्द्र नाथ बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे भारत माता के कई वीर सपूतों ने तो प्राणों का बलिदान भी दे दिया ।
महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, वीर सावरकर जैसे कई राष्ट्र भक्तों ने अपनी सुख सुविधाओं को त्यागकर अपने जीवन के महत्वपूर्ण दिनों को जेलों में बिताया ।
शासक कोई भी हो अगर जनता सुखी है तो विरोध क्यों होगा, अंग्रेजों का विरोध इसलिए हुआ क्योंकि अंग्रेज शासन के अधिकारी नस्लीय आधार पर भेदभाव करते थे, भारतीयों को अपने से नीचा समझते थे, सामाजिक विषमता पैदा करते थे, ब्रिटिश कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए भारतीय मजदूरों और किसानों का दमन करते थे ।
पूंजीवादी वयवस्था में कम्पनियों के द्वारा भारतीयों का शोषण होता था । भेदभाव, अत्याचार, अमानवीय व्यवहार, दमन और शोषण के विरोध में क्रांति तो होना ही थी ।
आज़ादी पाने की छटपटाहट पूंजीवादी व्यवस्था में होने वाले शोषण के प्रतिकार के रूप में थी । इसी ने क्रांति का रूप धारण किया ।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों बलिदानियों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि जिन सिद्धांतो को अपनाकर जिन कारणों से उन्होंने क्रांति का रास्ता अपनाया उन सिद्धांतों पर हम भी चलें और उसी तरह के कारण सामने हों तो क्रांतिकारी की भूमिका निभाने से पीछे न हटें ।
लोकतांत्रिक स्वतंत्र देश में अब हिंसक क्रांति की कतई आवश्यकता नहीं है । सत्याग्रह और शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन का रास्ता ही एकमात्र रास्ता है जो भारतीयों को अन्याय, अत्याचार, भेदभाव, सामाजिक विषमता जैसी बुराइयों के विरुद्ध क्रांति करके अपेक्षित परिणाम दिला सकता है ।