दुनिया के पहले चिकित्सा विज्ञानी धन्वन्तरि प्रमोद भार्गव



 ग्रंथों का सृजन थम गया। इन आक्रमणों के कारण जो आरजकता, हिंसा और अषांति फैली, उसके चलते अनेक आयुर्वेदिक ग्र्रंथ छिन्न-भिन्न व लुप्त हो गए। आयुर्विज्ञान के जो केंद्र और षाखाएं थीं, वे पंडे और पुजारियों के हवाले हो गईं, नतीजतन भेशज और जड़ी-बुटियों के स्थान पर तंत्र-मंत्र के प्रयोग होने लग गए। यही वह कालखंड था, जब बौद्ध धर्म ने भी पतनषीलता की राह पकड़ ली। इसके साथ ही जो षल्य क्रिया व चिकित्सा से जुड़ा जो विज्ञान था, उसमें अनुषीलन तो छोड़िए, वह यथास्थिति में भी नहीं रह पाया ?

 इसके बाद जो रही-सही ज्ञान परंपराएं थींउन पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से पानी फेरने का काम अंग्रेजों ने कर दिया। डाॅ धर्मपाल की पुस्तक इंडियन साइंस एंड टेक्नोलाॅजी‘ में लिखा है कि 1731 में बंगाल में डाॅ ओलिवर काउल्ट नियुक्त थे। काउल्ट ने लिखा है कि भारत में रोगियों को टीका देने का चलन था। बंगाल के वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीका की जरूरत पड़ने वाले रोगी के षरीर में कई बार चुभोते थे। इस उपचार पद्धति को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई सी बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके तीसरे या चैथे दिन रोगी को बुखार आता था। इसलिए वे रोगी को ठंडी जगह में रखते थे और उसे बार-बार ठंडे पानी से नहलाते थेजिससे षरीर का ताप नियंत्रित रहे। डाॅ काउल्ट ने लिखा है कि टीका लगाने की विधि मेरे भारत आने के भी ड़ेढ़ सौ साल पहले से प्रचलन में थी। यह काम ज्यादातर ब्राह्मण करते थे और साल के निष्चित महीनों वे इसे अपना उत्तरदायित्व मानते हुए घर-घर जाकर रोगी ढूंढते थे। ओलिवर लिखते हैं कि इस विकित्सा प्रणाली का अध्ययन व अनुभव के बाद मैं इस विधि की गुणवत्ता का प्रषंसक हो गया। मैंने कहा भी कि जो लोग उपचार की इस विधि को नहीं अपना रहे हैंतो वे उन रोगियों के साथ अन्याय कर रहे हैंजिनकी जान बचाई जा सकती है।‘ लेकिन जब अंग्रेजों ने भारत में ऐलोपैथी चिकित्सा थोपने की षुरूआत की तो शड्यंत्रपूर्वक एक-एक कर सभी प्रणालियों को नश्ट करने का जैसे अभियान ही चला दिया था। इन प्राचीन पद्धतियों को पुनः प्रचलन में लाने की जरूरत है।

प्रमोद भार्गव

लेखक/पत्रकार

शब्दार्थ 49, श्रीराम काॅलोनी

शिवपुरी म.प्र.

मो. 09425488224, 09981061100

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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