गणतंत्र के 75 वर्ष: कितना सफल हुआ"गण"का "तंत्र"....? ✍️बृजेश सिंह तोमर

 👉गणतंत्र के 75 वर्ष: कितना सफल हुआ"गण"का "तंत्र"....?*

  *(✍️बृजेश सिंह


तोमर)*

★आज जब हमारा गणतंत्र 75 वर्षों का पड़ाव पार कर चुका है, तो यह सवाल पूछना स्वाभाविक है कि क्या "गण" के हाथों में "तंत्र" वास्तव में आया है? हमारा संविधान, जो विश्व के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, समानता, न्याय और स्वतंत्रता का वादा करता है। लेकिन इन वादों का असल प्रभाव क्या आम आदमी के जीवन में दिखा है? क्या हर नागरिक को वह अधिकार और गरिमा मिल पाई है, जो संविधान लागू करते समय कल्पित की गई थी?


सच यह है कि संविधान के मूल्यों को जमीनी स्तर पर लागू करने में कई बाधाएं आईं। संविधान ने भले ही जाति, धर्म, और आर्थिक भेदभाव को नकार दिया हो, लेकिन वास्तविकता इससे कहीं अधिक कठिन है। राजनीति ने इन भेदभावों को मिटाने के बजाय उन्हें अपने फायदे के लिए और अधिक गहरा किया है। सत्ता का खेल जाति और धर्म आधारित वोटबैंक की राजनीति तक सीमित होकर रह गया है। हर पांच साल पर चुनाव आते हैं, लेकिन चुनावों में जनता का महत्व केवल वोट तक सीमित रहता है। उम्मीदवार धन और बाहुबल के दम पर चुने जाते हैं, जबकि आम आदमी के मुद्दे हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं।


गणतंत्र का असली उद्देश्य था कि जनता के हाथ में तंत्र हो। परंतु क्या यह उद्देश्य पूरा हुआ? ग्रामीण भारत आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी सुविधाएं अभी भी दूर का सपना हैं। गांवों में बिजली और पानी की समस्याएं ज्यों की त्यों हैं, जबकि शहरों में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने आम आदमी की रीढ़ तोड़ दी है। प्रशासनिक व्यवस्था, जो जनता की सेवा के लिए बनाई गई थी, आज लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है।


हाल के चुनावों पर नजर डालें तो पता चलता है कि मतदाताओं की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। लेकिन यह बदलाव क्या वास्तव में तंत्र को जनता के करीब ला रहा है? सच्चाई यह है कि जिन मुद्दों पर जनता को ध्यान देना चाहिए, वे मुद्दे राजनीतिक दलों की रणनीतियों में दबकर रह जाते हैं। स्वार्थ और सत्ता की भूख ने तंत्र को गण से दूर कर दिया है।


संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी, यह विचारणीय है कि क्या आम आदमी के पास वास्तविक अधिकार हैं। जिन आदर्शों को लेकर संविधान बना था, वे आज भी अधूरे प्रतीत होते हैं। सामाजिक और आर्थिक असमानताएं आज भी बनी हुई हैं। लोकतंत्र की सफलता का मापदंड केवल चुनाव नहीं हो सकते; इसका अर्थ है हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार देना।


गणतंत्र दिवस केवल उत्सव का अवसर नहीं है, बल्कि यह आत्मचिंतन का भी समय है। हमें यह सोचना होगा कि क्यों संविधान की भावनाएं केवल कागजों तक सीमित रह गई हैं। राजनीतिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना होगा।


गणतंत्र तभी सफल होगा जब "तंत्र" को सच में "गण" के हाथों में सौंपा जाएगा। यह यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन इसे तय करना अनिवार्य है। हमारा गणतंत्र तब ही सार्थक होगा जब हर नागरिक यह महसूस करेगा कि संविधान के वादे उसके जीवन में पूरी तरह लागू हो चुके हैं।

*बहरहाल,गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये....!!*


*✍️बृजेश सिंह तोमर*

     (वरिष्ठ पत्रकार,चिंतक)

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