गंगा के आंचल में खोया मन:कुम्भ की दिव्यता से साक्षात्कार...कुम्भ से लौटकर पत्रकार बृजेश सिंह तोमर की कलम ✍️



👉कुम्भ के रंग, माँ गंगा के संग..!श्रद्धा से भरा सुहाना सफर....!

👉सजा है संगम का कुम्भ मेला,प्रयाग तुमको बुला रहा है...!


(✍️कुम्भ से लौटकर बृजेश सिंह तोमर..!)


🚩कुंभ से लौटते हुए मन में एक अजीब-सी शांति थी और आंखों में बस गए थे वो अद्भुत दृश्य, जिन्हें शब्दों में बांधना आसान नहीं। प्रयागराज की पावन धरती पर जब करोड़ों श्रद्धालु एक साथ उमड़ते हैं, तो दृश्य सिर्फ भीड़ का नहीं होता, वो आस्था का सागर होता है, जिसमें हर कोई खुद को खो देना चाहता है। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के इस त्रिवेणी संगम पर पहुंचने तक का सफर जितना रोमांचक था, उतना ही व्यवस्था की दृष्टि से प्रशंसनीय भी। आमतौर पर जब इतने बड़े आयोजनों में लाखों-करोड़ों लोग एक साथ पहुंचते हैं, तो अव्यवस्था, जाम, और अफवाहें भय का कारण बनती हैं, लेकिन विशेष स्नान की कुछ तिथियों को यदि छोड़ दिया जाए तो इस बार प्रयागराज ने विश्वास की मिसाल पेश की। देश की लगभग आधी आबादी कुम्भ में आस्था की डुबकी लगा चुकी है।हाईवे पर जाम की आशंका जरूर थी, पर जैसे ही लोग धैर्य बनाए रखते और प्रशासन के निर्देशों का पालन करते दिखे, सफर सहज हो गया। खास बात यह रही कि अधिकतर लोग अपनी गाड़ी अनुशासनपूर्वक एक-दूसरे के पीछे लगाकर चले, जिससे जाम की स्थिति जल्दी ही सामान्य हो गई। जो श्रद्धालु सलाह मानकर रात में प्रयागराज पहुंचे, वे घाटों के करीब तक गाड़ी लेकर पहुंच सके और दिन के मुकाबले कम समय में गंगा मैया के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर सके।


शहर के भीतर प्रवेश करते ही, श्रद्धा और संस्कृति का अद्भुत संगम देखने को मिला। नगरीय क्षेत्र में सड़कों के दोनों किनारे भक्ति गीतों से गूंज रहे थे, तमाम जगह सेवा शिविरों में स्वयंसेवक यात्रियों की मदद को तत्पर थे, और पुलिस के जवान हर मोड़ पर रास्ता दिखा रहे थे। जहां तक गाड़ी ले जाना संभव था, वहां तक पहुंचकर जब पार्किंग में वाहन खड़े किए तो देखा कि वहां से घाटों तक के सफर के लिए ऑटो, टेंपो और मोटरसाइकिल जैसी सुविधाएं भरपूर थीं। पैदल चलने का विकल्प भी था, लेकिन 8 से 15 किलोमीटर की दूरी बुजुर्गों के लिए कठिन हो सकती थी, इसलिए परिवहन साधनों ने उनकी यात्रा बेहद आसान बना दी। हालांकि "कुम्भ में अवसर"भी खूब तलाशा गया और टैक्सी,बाइक बालो ने श्रद्धालुओं से मनमाफिक दाम भी बसूले ।यहाँ दर निर्धारण न करना समयानुकूल नही लगा।देश भर से आये यात्रियों की मजबूरी का फायदा स्थानीय वाहन चालकों ने उठाया किन्तु ऊंचे दामो पर सही मगर सुविधाएं मिल गयी जिसने यात्रा को सुगम बना दिया।

घाट तक पहुंचते-पहुंचते ही लगा मानो किसी अन्य लोक में प्रवेश कर लिया हो—चारों ओर गूंजते मंत्रोच्चार, आरती की दिव्यता और गंगा की लहरों पर पड़ती दीपों की झिलमिल रोशनी ने हर थकान को पल भर में भुला दिया।


गंगा मैया की गोद में उतरते ही जो अनुभव हुआ, वो शब्दों में बांधना कठिन है। जैसे सारी परेशानियां, सारी चिंताएं, सबकुछ वहीं बह जाता है। यह केवल एक स्नान नहीं था; यह आत्मा का शुद्धिकरण था, आस्था की पराकाष्ठा थी। संगम की रेत पर बैठे साधु-संतों की वाणी, मंत्रों की ध्वनि, और आकाश में उड़ते आस्था के रंगीन झंडे,गुब्बारे—ये सब कुछ सनातन संस्कृति की जीवंत तस्वीर पेश कर रहे थे। घाटों पर लगी कतारें लंबी जरूर थीं, पर उनमें एक अद्भुत अनुशासन था। कोई धक्का-मुक्की नहीं, कोई हड़बड़ी नहीं, बस श्रद्धा और भक्ति की एक अविरल धारा। बुजुर्गों के चेहरों पर थकान के बाद भी आत्मिक संतोष, बच्चों की आंखों में कौतूहल, और हर किसी के मन में पुण्य अर्जित करने का उल्लास स्पष्ट था।


अब तक देश की आबादी के पचास फीसदी लोग अर्थात तकरीबन पचपन करोड़ श्रद्धालु इस महापर्व में शामिल हो चुके हैं और यह संख्या हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जा रही है। न सिर्फ देश के कोने-कोने से, बल्कि विदेशों से भी हजारों लोग इस महाकुंभ का हिस्सा बनने आए हैं, जो बताता है कि आस्था की इस डोर ने पूरी दुनिया को संगम तट पर एकत्र कर दिया है। प्रशासन ने हर छोटी-बड़ी बात का ख्याल रखा था। स्नान के बाद जब घाट किनारे बैठकर गंगा आरती देखी, तो ऐसा लगा मानो आत्मा साक्षात मां गंगा के सान्निध्य में पहुंच गई हो। हजारों दीपक जब लहरों पर एक साथ तैरते तो दृश्य स्वर्गिक हो उठता। चारों ओर ‘हर हर गंगे’ की गूंज, आकाश में उड़ते भक्तों के झंडे, और संगम की लहरों पर पड़ती चांदनी, सब कुछ इतना भव्य था कि आंखें नम हुए बिना न रहीं।


सफर के दौरान अफवाहें तो बहुत सुनीं बहुत, लेकिन जो वास्तविकता देखी, उसने हर संदेह को दूर कर दिया। व्यवस्थाएं न केवल संतोषजनक थीं, बल्कि कई स्थानों पर उम्मीद से बढ़कर मिलीं। हां, धैर्य और संयम जरूरी था, पर जो इस महापर्व में शामिल हुआ, उसने पाया कि यह यात्रा केवल शरीर की नहीं, आत्मा की यात्रा है। कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, वह एक जीवंत परंपरा है जो यह सिखाती है कि आस्था जब संगठित होती है तो करोड़ों लोग भी एक परिवार की तरह व्यवहार करते हैं।त्रिवेणी की संगम धारा के शीतल जल में सन्तजनों के अतिरिक्त बच्चो से लेकर बृद्धजनों के स्नान उपरांत  जल की ऊर्जा में वो तरंगे विधमान हो गयी जिसमे एक डुबकी के बाद ही सब कुछ नया नया सा महसूस होने लगा।शायद यही तो था सनातनी आस्था का चमत्कार..!प्रयागराज के तट पर महाकुम्भ का दिव्य ओर भव्य उपहार..!


लौटते समय मन व्याकुल हुआ उस असीम आनंद से बिछुड़ने का ओर एक बार फिर पीछे मुड़कर गंगा मैया की ओर देखा, तो मन ने कहा—“ये केवल स्नान नहीं था, ये जीवन की उस प्यास को बुझाने का अवसर था जो आत्मा को शांति देती है।” प्रयागराज के इस महाकुंभ ने साबित कर दिया कि आस्था के आगे हर बाधा छोटी पड़ जाती है।

लौटते समय मन ने बस यही कहा-गंगा मैया का आशीर्वाद सदा बना रहे,अगली बार फिर इसी आस्था के साथ लौटूंगा...!हर हर गंगे...! नमामि गंगे...!


*✍️बृजेश सिंह तोमर*

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार)

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